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साँझ-15 / जगदीश गुप्त झुक गये शिथिल दृग दोनों, रूँध गई कंठ में वाणी। अधरों का मधुर परस-रस, कर सका न मुखिरत प्राणी।।२११।। कोई न जिसे पढ़ पाया, ऐसी रहस्य लेखा ...